Friday 7 September 2012

हिंदी नव रस

I recently had a project in Hindi it was on the nav ras or nine emotions. I faced huge problems in finding the poems. So I thought "Why don't i make other peoples life easy in finding the poems." So here is a compilation of all the poems of the emotions. If you like please comment or google+ it.

 Please note that all of these project work that I shall do will be posted on a another website known as Rolled Off the URL is http://slompyes.blogspot.in/
Thanks.
Raudra ras
समर शेष है

ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?

किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।

फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।
वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।

देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?

अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?

समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।

धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,
कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।

समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।

पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।

समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।

समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।

तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।



Vir ras
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

Shrigar ras

चाह नहीं मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं, प्रेमी-माला में
बिंध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं, सम्राटों के शव
पर हे हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के सिर पर
चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ

मुझे तोड़ लेना वनमाली
उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पर जावें वीर अनेक

Hasya ras



Karuna ras

ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बँट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

खेतों में बारूदी गंध,
टुट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्याथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।

अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएँ, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।

Bhyanak ras
वो चाकलेट
जब नाखून भरे हाथ बन जाती होगी
तो मासूम छौने सी, नन्ही सी, गुडिया सी
छोटी सी बिल्ली के बच्चे सी बच्ची
सहसा सहम कर, रो कर, दुबक कर
कहती तो होगी 'बुरे वाले अंकल'
मेरे पास है और भी एसी टॉफी
मुझे दो ना माफी, जाने भी दो ना..
मुझे छोड दो, मेरी गुडिया भी लो ना
तितली भी है, मोर का पंख भी है
सभी तुमको दूंगी, कभी फिर न लूंगी
मुझे छोड दो, मुझको एसे न मारो
ये कपडे नये हैं, इन्हें मत उतारो
मैं मम्मी से, पापा से सबसे कहूँगी
मगर छोड दोगे तो चुप ही रहूंगी..

क्या आसमा तब भी पत्थर ही होगा
क्यों इस धरा के न टुकडे हुए फिर?
पिशाचों नें जब उस गिलहरी को नोचा
तो क्यों शेष का फन न काँपा?
न फूटे कहीं ज्वाल के मुख भला क्यों?
गर्दन के, हाँथों के, पैरों के टुकडे
नाले में जब वो बहा कर हटा था
तो ए नीली छतरी लगा कर खुदा बन
बैठा है तू, तेरा कुछ भी घटा था
तू मेरी दृष्टि में सबसे भिखारी
दिया क्या धरा को ये तूनें 'निठारी'?

ये कैसी है दुनियाँ, कहाँ आ गये हम?
कहाँ बढ गये हम, कि क्या पा गये हम?
न आशा की बातें करो कामचोरों
'लुक्क्ड', 'उचक्को', 'युवा', तुम पे थू है
तुम्ही से तो उठती हर ओर बू है
अरे 'कर्णधारो' मरो, चुल्लुओं भर पानीं में डूबो
वेलेंटाईनों के पहलू में दुबको, तरक्की करो तुम
शरम को छुपा दो, बहनों को अमरीकी कपडे दिला दो
बढो शान से, चाँद पर घर बनाओ
नहीं कोई तुमसे ये पूछेगा कायर
कि चेहरे में इतना सफेदा लगा कर
अपना ही चेहरा छुपा क्यों रहे हो
उठा कर के बाईक 'पतुरिया' घुमाओ
समाचार देखो तो चैनल बदल दो
मगर एक दिन पाँव के नीचे धरती
अगर साथ छोडेगी तो क्या करोगे?
इतिहास पूछेगा तो क्या गडोगे?
तुम्हारी ही पहचान है ये पिटारी
उसी देश के हो है जिसमें निठारी...

भैया थे, पापा थे, नाना थे, चाचा थे
कुछ भी नहीं थे तो क्या कुछ नहीं थे
बदले हुए दौर में हर तरफ हम
पिसे हैं तो क्या आपको अजनबी थे?
नहीं सुन सके क्यों 'बचाओ' 'बचाओ'
निठारी के मासूम भूतों नें पूछा
अरे बेशरम कर्णधारों बताओ..




Shant

क्या हैं कविता
कवि के होठों कि इक बात हैं |
कभी लाती ख़ुशी और कभी गम कि बरसात हैं |
कविता की इक बात निराली हैं
न जाने कितने मतलब हैं इसके
ये बात खुद कवि ने भी न जानी हैं |
ज्यों बारिश की बूंदों से बुझती मिटटी की प्यास हैं
कविता के भावों से निकलती मन की भाड़ास हैं |
कागज़ पर केवल शब्दों का कोष नहीं हैं कविता
यह तो नीले आसमान में उडती पूंछियों की आवाज़ हैं |
कभी वीर रस और कभी शांत रस का सार हैं कविता
तो कभी मानवीय मूल्यों की बहती बहार हैं |
कभी प्रेमी के मुख की बात हैं कविता
तो कभी देश में भड़काती आग हैं |
क्या हैं कविता
कवि के होठों की इक बात हैं ||

Vibhatsa or bhibhasta ras

ना सर्द हूँ, ना गीला हूँ, और ना दर्द होता है, पर
कल रात की घटना पर दिल चीत्कार कर रोता है

इतना 'बोझ' कि पसीने छूटते, उस बर्फ़ीली रात में
ढो रहा था सालों से 'जिसको', जग के इस उत्पात में

'एक नहीं कई राहें हैं', बस यही मान कर टालता रहा
दलदल में धंसता गया, और झूठा विश्वास पालता रहा

कल रात वो राहें एक-एक कर, बंद हो गयीं सारी
जीवन का हर बीतता पल लगा, पहाड़ से भी भारी

मुँह मोड़ कर रोशनी से, भंवर में ऐसा खो गया
असीम पीढ़ा का निश्चित अंत, कल रात ज़रूरी हो गया

ना सर्द हूँ, ना गीला हूँ, और ना दर्द होता है, पर
कल रात की घटना पर दिल चीत्कार कर रोता है

छाती पर चपेड पानी की, अंतर्मन झकझोर गयी
काले काल में मेरी काया, आह, पूर्ण जल-विभोर भयी

देखता हूँ, पत्नी को अपनी, जिस पर पहाड़ ये टूटेगा
सोचता हूँ, उन सवालों का जवाब, अब कोई तो ढूंदेगा

बेटा इकलौता एक साल का, उससे तो करते नहीं बनेगा
पर जीवन से झूझती पत्नी को, सही राह का ही फलेगा

अब लगता है वह मंज़िल तो, इच्छा-शक्ति से मिलेगी
फाँस कल रात के फ़ैसले की, जन्मों-जन्म तक खलेगी

काश इतना ही सोच लेता की, बर्फ सा ठंडा होगा पानी
जान की कीमत के आगे, हर दुख और पीढ़ा है बेमानी

तब आज नहीं तो कल, दुविधा का हल ढूँढ ही लेता
ना परिवार रुलता, ना खाते ठोकरें मेरे पत्नी औ बेटा

ना सर्द हूँ, ना गीला हूँ, और ना दर्द होता है, पर
कल रात की घटना पर दिल चीत्कार कर रोता है


Adbhut ras
कभी-कभी लगता है कि मैं इस युग के लिये बना ही नहीं। यहाँ मुझे अपने जैसा कुछ नहीं दिखता। प्यार, विश्वास, एक दूसरे के प्रति सम्मान, समपर्ण -यह सब संसार से मिट गया सा लगता है। अब लोग स्वार्थी हो गये हैं और एक ऐसी अंधी दौड़ में भाग ले रहे हैं जिसका उद्देश्य क्या है उन्हें खुद ही नहीं पता। खै़र, यही सब भाव इस नज़्म-रूपी रचना में प्रकट हुए हैं।
दिल की आरज़ू है कि मिले कोई
जिसकी कैफ़ियत रंगो-सी हो!
जो मिल जायें एक-दूजे में
तो फिर कभी जुदा ना हों
फिर ना अपनी कोई शख़्सियत रहे
ना ही अपने सपने
मेराअपना कुछ भी ना रहे
जो भी हो बस, “हमाराहो
ना मैं उससे अलग होऊं
ना वो ही मुझसे न्यारा हो!
दो जिस्म और एक जाँ बनें
दो मन पर एक ख़्वाब हो
ज़िन्दगी के सभी सवालों का
हममिलकर एक जवाब हों

लेकिन मिलते कहाँ हैं ऐसे लोग
कोई किसी का होना नहीं चाहता
ख़ुद को मिटा कर कोई
दूजे में खोना नहीं चाहता
आज मैंका दौर है
हमका अब ज़माना नहीं रहा
पैसा, शोहरत ही सब कुछ है
प्यार ख़ुशी का पैमाना नहीं रहा!

साथ चलते हमराही भी अब
अलग-अलग राह अपनाते हैं!
रंग जब लेकिन मिलते हैं
तो आपस में बंध जाते हैं
अब तो लोग हमसफ़र भी हों
तो भी सबका जुदा-जुदा ही रस्ता है
बंधन तो अब जैसे
बस इक लफ़्ज़े-गाली लगता है

लोग अब रंगों की तरह नहीं रहते
मिलते हैं तेल और पानी की तरह
भला जन्मों का मेल क्या होता है?
अब तो रिश्ते हैं नक़्शे-फ़ानी की तरह

काश!
कोई एक मुझे
रंगों-सा मिल जाता!